असम कैबिनेट में हरियाणवी के होने का मतलब

आर.के. सिन्हा

असम में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने अपनी कैबिनेट में एक इस तरह के शख्स को भी लिया है, जो मूल रूप से हरियाणा से हैं । उनका नाम है अशोक सिंघल। अशोक सिंघल हरियाणा जिले में लोहारू तहसील से हैं। उनके पिता कुछ दशक पहले असम में कारोबार के सिलसिले में वहां चले गए थे। अशोक सिंघल का असम की कैबिनेट में होना उन सबको जवाब है जो चुनावों में अकारण “बाहरी” का मसला उठाते रहते हैं। अशोक सिंघल जैसे प्रयोग सारे देश में होने चाहिए। तब ही तो भारत की एकता में अखंडता की बात को दुनिया जान पाएगी। सिंघल के मंत्री बनने से समूचे पूर्वोत्तर राज्यों में बसे हिन्दी भाषियों के बीच भी एक बेहतरीन संदेश जाएगा। उन्हें महसूस होगा कि उन्हें भी अब उनका हक मिलने लगा है।

अशोक सिंघल असम की देकिअजुली विधानसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी को 37854 वोटों से हराकर दूसरी बार विधायक बने हैं। अशोक सिंघल ने बीजेपी प्रत्याशी के तौर पर इससे पहले भी 2016 में भी जीत दर्ज की थी। 

माफ करें कि अनेकता में एकता का नारे देने वाले ही हमारे कुछ नेता ही एक-दूसरे को चुनावों के दौरान अपनी सुविधानुसार बाहरी उम्मीदवार का मसला उठाने लगते हैं। कुछ दशक पहले तक यह स्थिति नहीं थी। तब कानपुर से एस.एम.बैनर्जी सांसद बनते थे, जॉर्ज फर्नाडीज मुजफ्फरपुर और नालंदा से लोकसभा का चुनाव जीत जाते थे, मधु लिमये बांका से लोकसभा पहुंचते थे। मलयाली मूल के एस.के.नायर बाहरी दिल्ली से 1952 और 1957 का चुनाव जीते थे । आपको इस तरह के कुछ और भी उदाहरण मिल जाएंगे। नायर गांधी जी के शिष्य थे।

देखा जाए तो हम अपनों को ही स्वार्थ वश जब चाहे बाहरी बता देते हैं, दूसरी तरफ हमारी भारतीय मूल की कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति बन जाती है। तब हम गर्व भी करते हैं। कैसा विरोधाभास है यह ? इस वक्त भी करीब एक-डेढ़ दर्जन देशों में सांसद और प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक भारतवंशी हैं। इनमें मलेशिया, मारीशस, त्रिनिडाड, ग्याना, केन्या, फीजी, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा,आस्ट्रेलिया  वगैरह शामिल हैं। गुयाना में 1960 के दशक में भारतीय मूल के छेदी जगन राष्ट्रपति बन गए थे। उसके बाद तो शिवसागर राम गुलाम (मारीशस), नवीन राम गुलाम, अनिरुद्ध जगन्नाथ (मारीशस), महेन्द्र चौधरी (फीजी),  वासदेव पांडे (त्रिनिडाड), एस.रामनाथन(सिंगापुऱ) सरीखे भारतवंशी विभिन्न देशों के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनते रहे।

इस लिहाज से पेरू के पूर्व राष्ट्रपति अलबर्ट फूजीमोरी की बात करना अनिवार्य है। वे मूलत: जापानी मूल के थे। वे जब बहुत छोटे थे तब अपने माता-पिता के साथ पेरू में बस गए। वहां पर ही पले-बढ़े। आगे चलकर उस देश के शिखर पर गए। ये तब की बात है जब पेरू में जापानी परिवारों की आबादी बमुश्किल से दो दर्जन भी नहीं थी। वे पेरू के वर्ष 1990-2000 तक राष्ट्रपति रहे। उनके पुत्र केन्जी फूजीमोरी भी पेरू के सांसद रहे। वर्ष 2000 में इस्तीफा देने के बाद फूजीमोरी जापान चले गए थे, लेकिन अपने देश में खुद पर लगाए गए आरोपों का सामना करने के लिए उन्हें वर्ष 2007 में पेरू प्रत्यर्पित कर दिया गया। बराक ओबामा का परिवार केन्या से है। वे जब अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो उनके कई भाई-बहन केन्या में ही थे।

भारतवंशी अफ्रीका से लेकर यूरोप वगैरह में राजनीति कर रहे हैं,  आगे बढ़ रहे हैं। एक बार त्रिनिडाड के प्रधानमंत्री रहे वासुदेव पांडे ने कहा था कि त्रिनिडाड में उन्हें कभी इस तरह का अहसास नहीं हुआ कि वे धरतीपुत्र नहीं हैं, वे बाहरी हैं। अब आप खुद तय कर लें कि हमारे यहां बाहरी उम्मीदवार को लेकर बहस का होना कितना शर्मनाक है।

आप दिल्ली का उदाहरण लें। दिल्ली लघु भारत है। इधर सभी राज्यों के लोग बसते हैं। पर दिल्ली ने गैर-हिन्दीभाषियों के साथ कुछ स्तरों पर निश्चित रूप से बेरुखी ही दिखाई है।  दिल्ली में 1952 से लेकर 2015 के विधान सभा चुनावों में मात्र दो गैर हिन्दी भाषी निर्वाचित हुए। पहले विधान सभा चुनाव में गोल मार्किट सीट से कांग्रेस की टिकट पर प्रफुल्ल रंजन चक्रवर्ती नाम के बांग्लाभाषी चुने गए थे।  2003 के विधान सभा चुनाव में पटपड़गंज से मीरा भारद्वाज कांग्रेस की टिकट पर जीती थी।  वह मूल रूप से मलयाली हैं।

इन दो उदाहरणों को छोड़ दिया जाए तो दिल्ली ने राजनीति में समावेशी होने की कभी ख्वाहिश नहीं जताई। कितना अच्छा होता कि यहां कि विधान सभा में कम से कम कुछेक तो गैर-हिन्दी भाषी होते। हिन्दी भाषी गिले-शिकवे करने में हमेशा बहुत आगे रहते हैं। वे बार-बार कहते हैं कि उनके साथ मुबंई से लेकर असम तक में अन्याय हो रहा है। कुछ हद तक यह बात सही भी हो सकती है। पर वे भी तो कभी अपनी गिरेबान में झांके। क्या वे गैर-हिन्दी भाषियों को उनका जायज हक देते हैं? हिन्दी भाषी क्षेत्रों में पूर्वोत्तर के लोगों से भेदभाव के समाचार आते रहते हैं। महाराष्ट्र में कृपाशंकर सिंह उप मुख्यमंत्री तक बने। वहां पर हमेशा कुछ उत्तर भारत से संबंध रखने वाले मंत्री रहते हैं। क्या किसी उत्तर भारत के राज्य में मराठी, मलयाली या गैर-हिन्दी भाषी को जगह मिलती है?  मैं यहां पर मध्य प्रदेश को नहीं लूंगा। मौजूदा मध्य प्रदेश में लंबे समय से मराठी और गुजराती परिवार हजारों-लाखों बसे हुए हैं। इसलिए मध्य प्रदेश से मराठी भाषी सांसद और मंत्री बनते ही रहते हैं। जाहिर है कि भीषण कोरोना काल के बावजूद अशोक सिंघल के गुवाहाटी में मंत्री पद की शपथ लेते ही जश्न लोहारू में भी मनाया गया।

अशोक सिंघल के पिता परमानंद सिंघल करीब 50 साल पहले व्यापार करने के लिए परिवार सहित असम राज्य में जाकर रहने लगे थे।  अशोक सिंघल लॉकडाउन हटने के बाद  अपने पुरखों के गांव के माता मंदिर में मां का आशीर्वाद लेने के लिए पहुंचेंगे। असम कैबिनेट में अशोक सिंघल का होना सारे हिन्दी भाषी समाज के लिए एक सबक की तरह है। अब उन्हें भी बड़े दिल का परिचय देते हुए गैर-हिन्दी भाषियों को उनका वाजिब हक देना होगा।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

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