हमारा जीवन धन्य हो जाए, यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश

सुरेश जैन, मुरादाबाद। ‘हर व्यक्ति अपने स्वयं के दोष की वजह से दुखी रहता है। वह खुद अपनी गलती सुधार कर प्रसन्न हो सकता है। स्वयं से लड़ो , बाहरी दुश्मन से क्या लड़ना? वह जो स्वयं पर विजय कर लेगा, उसे आनंद की प्राप्ति होगी। पृथ्वी पर हर जीव स्वतंत्र है। कोई किसी पर भी आश्रित नहीं है। प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता। आनंद तो अंतर से होता है, नि:सीमा होता है, शाश्वत होता है और भगवान के मिलन के बाद मानव की आत्मानुभूति होता है। अतः आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। असली शत्रु – क्रोध , घमंड , लालच ,आसक्ति और नफरत… आपके भीतर हैं।’

भगवान महावीर जैन पन्थ के चौंबीसवें तीर्थंकर हैं। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले यानी ईसा से 599 वर्ष पूर्व वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर में इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहां चैत्र शुल्क तेरस को हुआ था। ग्रंथों के अनुसार उनके जन्म के बाद राज्य में उन्नति होने से उनका नाम वर्धमान रखा गया था। महावीर जब शिशु अवस्था में थे, तब इन्द्रों और देवों ने उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर प्रभु का जन्मकल्याणक मनाया। जैन ग्रंथ उत्तरपुराण में वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर और सन्मति ऐसे पांच नामों का उल्लेख है। इन सब नामों के साथ कोई कथा जुड़ी है। जैन ग्रंथों के अनुसार, 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने के 188 वर्ष बाद इनका जन्म हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गए। 12 वर्षों की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। 72 वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। जैन समाज महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर जयंती जबकि उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूम-धाम से मनाता है।

जैन ग्रंथों के अनुसार समय-समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और ऋषभदेव पहले। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएं नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसीलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें, जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर को जियो और जीने दो का सिद्धांत है।

भगवान महावीर अपने उपदेशों में कहते हैं- ‘मैं जब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे ह्रदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की क्षमा मांगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ। मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट को हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ को हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे पाप मिथ्या हों। धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूमकर भगवान महावीर ने अपना पवित्र संदेश फैलाया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य बताए।

भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है। इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पांच इन्द्रियों वाले जीव ) है उनकी हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। दूसरे के वस्तु बिना उसके दिए हुआ ग्रहण करना जैन ग्रंथों में चोरी कहा गया है। परिग्रह पर भगवान कहते हैं, जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। महावीर स्वामी अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश में कहते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से सम्बन्ध नहीं रखते, वे मोक्ष की और बढ़ते हैं। यही संदेश अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य( अस्तेय) और ब्रह्मचर्य के माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।

भगवान महावीर साधना काल 12 वर्ष का था। दीक्षा लेने के उपरांत भगवान महावीर ने दिगम्बर साधु की कठिन चर्या को अंगीकार किया और निर्वस्त्र रहे। श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुसार भी महावीर दीक्षा उपरांत कुछ समय छोड़कर निर्वस्त्र रहे और उन्होंने केवल ज्ञान की प्राप्ति भी दिगम्बर अवस्था में ही की। अपने पूरे साधना काल के दौरान महावीर ने कठिन तपस्या की और मौन रहे। इन वर्षों में उन पर कई उपसर्ग भी हुए, जिनका उल्लेख कई प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी नगरी (राजगीर) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। तीर्थंकर महावीर का केवलिकाल 30 का था। पावापुरी में जल मंदिर स्थित है। जल मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यही स्थान है जहां से महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। भगवान महावीर के निर्वाण के समय उपस्थित 18 गणराजाओं ने रत्नों के प्रकाश से उस रात्रि को आलोकित करके भगवान महावीर का निर्वाणोत्सव मनाया। भगवान महावीर का आदर्श वाक्य है- मित्ती में सव्व भूएसु… यानी सब प्राणियों से मेरी मैत्री है। हमारा जीवन धन्य हो जाए, यदि हम भगवान महावीर के इस छोटे से उपदेश का ही सच्चे मन से पालन करने लगें कि संसार के सभी छोटे-बड़े जीव हमारी ही तरह हैं, हमारी आत्मा का ही स्वरूप हैं।

(लेखक तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति हैं)

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