ध्रुव गुप्त दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का आंदोलन कुछ ज्यादा ही लंबा खिंच रहा है। हम किसानों की चिंताएं समझ सकते हैं। हम यह भी मानते हैं ...

ध्रुव गुप्त
दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का आंदोलन कुछ ज्यादा ही लंबा खिंच रहा है। हम किसानों की चिंताएं समझ सकते हैं। हम यह भी मानते हैं कि तीनों कृषि कानून किसानों के हित में कम, बड़े व्यावसायिक घरानों के हित में ज्यादा है और उन्हें रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्ज़ा देने की किसानों की मांग भी जायज़ है। इसके साथ हमें सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता को भी समझना होगा। वह अपने ही बनाए जाल में फंसी है और उससे बाहर निकलने के रास्ते तलाश रही है।
उसे डर है कि अगर वह कृषि कानून को वापस लेती है तो भविष्य में कई कानूनों के ख़िलाफ़ दिल्ली को घेरकर उन्हें वापस लेने की मांगें उठने लगेगी। कृषि कानूनों को संशोधित करने के प्रस्ताव खारिज़ किए जाने के बाद सरकार ने अभी डेढ़ साल तक उन्हें स्थगित रखने और इस बीच एक कमिटी बनाकर उनपर चर्चा करने का जो प्रस्ताव किसान संगठनों को दिया है, वह सरकार और किसानों दोनों के लिए इस डेडलॉक से निकलने का अवसर है।
मुझे लगता है कि इस स्थगन के बाद उलझन में फंसी सरकार इन्हें रद्द करने की शर्म से बचते हुए हमेशा के लिए इन्हें ठंढे बस्ते में डाल दे सकती है। ऐसा नहीं भी हुआ तो डेढ़ साल बाद एक बार फिर आंदोलन का रास्ता तो खुला हुआ ही है।
इस बीच 26 जनवरी को दिल्ली में किसानों के ट्रेक्टर परेड का आईडिया कुछ बुरा नहीं है, लेकिन सुरक्षा एजेंसियों का यह डर भी अकारण नहीं है कि कुछ आतंकी संगठन इस आंदोलन के बहाने भारत में कुछ अप्रिय कर गुज़रने के मौके तलाश रहे हैं। अगर वे सफल हुए तो एक ऐतिहासिक आंदोलन की असमय मौत भी हो सकती है।
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं, ये उनके निजी विचार हैं)