विधानसभा में बहुमत का महत्व!

डॉ दिलीप अग्निहोत्री

आईपीएन। राजस्थान के सत्ता पक्ष में स्पष्ट विभाजन है। सचिन पायलट के नेतृत्व में अनेक विधायकों ने बगावत कर दी है। मुख्यमंत्री और बागी गुट के अपने अपने दावे है। बहुमत पर संशय है। ये बात अलग है कि मुख्यमंत्री ने अपने समर्थक विधायकों की बैठक बुलाई थी। इसमें उन्होंने बहुमत के समर्थन का दावा किया। दूसरी ओर सचिन पायलट का कहना है कि उनके साथ कांग्रेस के तीस व कुछ निर्दलीय विधायक है। इस राजनीतिक माहौल में मुख्यमंत्री आवास परिसर में हुई विधायकों की परेड का कोई संवैधानिक महत्व नहीं है।

संविधान के अनुसार बहुमत का परीक्षण केवल विधानसभा पटल पर हो सकता है। बोम्मई मामले में भी यही प्रमाणित हुआ था। यह कहना गलत है कि इस परिस्थिति में राज्यपाल अपने आप कोई पहल नहीं कर सकते। कहा जा रहा है कि अभी राज्यपाल के सामने किसी पक्ष ने कोई दावा नहीं किया है। सचिन पायलट गुट या मुख्य विपक्षी भाजपा ने भी राज्यपाल के सामने सरकार के अल्पमत होने का मसला प्रस्तुत नहीं किया है। इस आधार पर कहा जा रहा है कि राज्यपाल को प्रतीक्षा करनी चाहिए।

इस मान्यता के अनुसार अशोक गहलोत सरकार को यथावत कार्य कार्य जारी रखना चाहिए। लेकिन यह विचार संविधान की भावना के अनुकूल नहीं है। ऐसा नहीं है कि राज्यपाल के सामने कोई सरकार के अल्पमत होने का दावा करेगा,तभी वह कोई निर्णय ले सकते है। राज्यपाल प्रदेश का संवैधानिक मुखिया होता है। उसे अपने स्तर से भी इस प्रकार के प्रकरण को देखने का अधिकार है। क्योंकि संविधान में कहा गया कि प्रदेश सरकार विधानसभा के विश्वास पर्यंत पद पर रहेगी। यहां विश्वास पर्यंत का मतलब बहुमत से है। यदि राज्यपाल को लगता है कि सरकार के बहुमत पर प्रश्नचिन्ह लगा है तो वह उसे विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश दे सकते है। साथ ही यथायोग्य समय सीमा का निर्धारण भी कर सकते है। राजस्थान में तो सत्ता पक्ष का विभाजन साफ दिखाई दे रहा है। सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री व कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिया गया है। अनेक विधायक लगातार उनके साथ है। इस परिस्थिति में मुख्यमंत्री शीघ्र ही विधानसभा में बहुमत साबित करने की पहल नहीं करते तो राज्यपाल उनको ऐसा करने का निर्देश दे सकते है। यह सही है कि संविधान की संसदीय व्यवस्था के अनुसार राज्यपाल मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुरूप कार्य करते है। लेकिन जब बहुमत को लेकर आशंका हो तो राज्यपाल को अपने विवेक से निर्णय का अधिकार होता है। वह पहले ऐसी सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश दे सकते है। राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र संविधान के जानकार व अनुभवी है। वह अपनी संवैधानिक भूमिका के प्रति सजग है।

अशोक गहलोत ने संविधान के अनुच्छेद 164 (ए) के अनुरूप सचिन पायलट को मन्त्रिमण्डल से बर्खास्त करने की सिफारिश राज्यपाल से की थी। इस अनुच्छेद की थी। लेकिन इस समय राजस्थान का मसला एक दो मंत्री तक सीमित नहीं है। यहां तो पूरी मंत्रिपरिषद के समक्ष विश्वास का संकट है। ऐसे में संविधान का अनुच्छेद 164(बी) लागू होता है। इसमें कहा गया मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। इसका मतलब है कि मंत्रिपरिषद विधानसभा के विश्वास पर्यंत ही पद पर रहेगी।

निहितार्थ यह कि विश्वास अर्थात बहुमत का परीक्षण मुख्यमंत्री आवास में नहीं विधानसभा पटल पर होना अपरिहार्य है। अशोक गहलोत ने राजभवन में राज्यपाल कलराज मिश्र से मुलाकात करके सचिन पायलट सहित तीन मंत्रियों को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी। मुलाकात के बाद उन्होंने कहा कि उनके पास पूर्ण बहुमत है। कयास लगाए जा रहे है कि मुख्यमंत्री कांग्रेस विधायकों की परेड राजभवन में करवा सकते हैं। लेकिन बोम्मई केस निर्णय का तकाजा है कि बहुमत का निर्णय सदन पटल पर होना चाहिए।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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